कविता
हर क़र्ज़ चूका देने की इक आदत सी हो गई है अब
खुद पे मैं फरिश्तों के ये रहम-ओ-करम नहीं रखती
इक बार उतर गया ग़र जो शख्स मेरी निगाहों से कहीं
फिर ज़हन में भी उसके होने का मैं भरम नहीं रखती।
चराग ये मुहब्बत के बदस्तूर जलते रहें ताउम्र
उनकी उल्फत में जलना हमें उम्रभर मंज़ूर है
उनकी चाहत को रूह में बसाया है हमनें भी
सुना है जमाने में सासों के रुकने का दस्तूर है
उनकी तारीफ़ नज़्मों में कहना मुनासिब नहीं
शक्सीयत मेरे जां की तमाम शहर में मशहूर है
रिवाज़ों में कैद ये जिस्म होते हैं एहसास नहीं
संगदिल जमाने को फिर किस बात का गुरूर है
कविता
डरे हुए से लम्हे, कुछ ख़ामोश से सपने
कुछ अपनों में गैर ,गैरों में कुछ अपने,
निदें रातों से दूर ख़्वाब आंखों से है ओझल
इन्हीं उलझनों में उलझी रहती हूं आजकल,
मृगतृष्णा के भ्रम जैसी थी मुहब्बत उसकी
रेत की तरह जिस्म से मेरी सांसें हैं फिसली,
स्याही आंसुओं की दर्द के पन्नों पे उतरती है ऐसे
टूटते हुए दरख़्त में बहार आख़िरी ठहरती है जैसे,
मध्यरात्रि का सूर्योदय
कई सदियों तक अंधेरी कोठी में बीती शामें
आज उदय भारत का सितारा हुआ था
मध्यरात्रि में हुआ उदित वो सूर्य आज़ादी का
चारो दिशाओं में आज उजियारा हुआ था
किसी ने उम्र की ढलती शाम में गोली खाई ना पीट पे
कोई फांसी चढ़ा बचपन और जवानी की दहलीज पे,
माएं भी हिंदुस्तान की देशहित के मर्म को बख़ूबी समझती हैं
यूंही नहीं कोई मां ख़ून से सिंची कोख़ देश के नाम लिखती है,
बहनें रक्षाबंधन से पहले भाई को देश रक्षा का तिलक लगाती हैं
यहां भार्या जांबाजों की तीज से पहले स्वतंत्रता दिवस मनाती हैं
पिता अंधा होकर भी लाठी अपनी भारत मां के नाम करता है
भारत के बेटों के जज्बे को यूंही नहीं ये जहां सलाम करता है
नाम किस-किस जवान का लूं मैं ,गिनती वीरों की मुमकिन नहीं
दुर्भाग्य ये हमारा है ,शहादत के बिना ढलता यहां कोई दिन नहीं,
आज तक रुक ना सका सिलसिला शहादत का सदियों पुराना दुश्मनी का राज़ है
प्रगतिशील भारत ये आज का कल के खून और बलिदान का अमर इतिहास है।
वो दिन भी आएगा
आजाद होंगे ज़ुल्मी,
रखेंगी नहीं कदम दहलीज के बाहर बेटियां कभी
हैवानों को पूजा जाएगा बीच चौराहे में
और क़ैद होंगी चिड़ियां सारी
माफ़ होंगे गुनाह सारे सितामगरों के ,
सज़ा मिलेगी नन्ही सी जानों को
आज जीने का अधिकार मिला है,
सब्र रखो कल आराध्य बनाया जाएगा हैवानों को
ज़ुल्म सहने वालों से ज़ुल्म करनेवाला बड़ा होता है
ये किस्सा भी एक दिन मशहूर होगा
थोड़ा और इंतजार करो पुरुष प्रधान
ये देश पुरुषत्व के शक्ति से अंजान भी जरूर होगा ,
कब तक न्याय की रट लगाई जाएगी बिके अखबारों से
आखिर कभी तो इस प्रथा का अंत होगा
मुखौटा उतार के भी जब हरतें हैं जानकी को राक्षस आज,
तो कब तक रावण का वेश संत होगा।
© Sujata Kumari
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1 Comments
Bahut Sahi Kaha apne waah ..
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